राजनीती

पहली रेस में पिछड़ी कांग्रेस, नहीं ढूंढ पा रही ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का जवाब

 
नई दिल्ली 

लोकसभा चुनाव का बिगुल बजते ही राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी रणनीति को अंजाम देना शुरू कर दिया है. इस सियासी समर के उद्घोष के साथ ही चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है. वोटों के लिए मैदान में उतारे जाने वाले योद्धाओं के नाम की घोषणा जारी है और कुछ दिन में पहले चरण के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने का काम भी शुरू हो जाएगा, लेकिन चुनावी नारों के मामले की बात करें तो अब तक सत्तारूढ़ पार्टी को छोड़कर बाकी दल खासकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पिछड़ता नजर आ रहा है. बीजेपी जहां 'मोदी है तो मुमकिन है' और 'फिर एक बार मोदी सरकार' के साथ मैदान में है तो कांग्रेस के खेमे में इसे लेकर फिलहाल सन्नाटा है.

कांग्रेस के पास नहीं है काट
बीजेपी और मोदी सरकार के मंत्री गाजे-बाजे के साथ 'मोदी है तो मुमकिन है' नारे के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं. खुद प्रधानमंत्री मोदी अपनी चुनावी रैलियों में इस नारे को ताल ठोक कर लगा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के पास इस नारे की काट का कोई नारा अब तक नहीं है. कांग्रेस के तमाम नेता और खुद पार्टी 'मोदी है तो मुमकिन है' के नारे के साथ ही मोदी सरकार और बीजेपी पर हमला कर रहे हैं. मतलब उनकी भूमिका सिर्फ बीजेपी के नारे पर रिएक्शन तक ही सीमित है. चुनाव कार्यक्रम घोषित होते ही जब ये साफ हुआ की मतगणना 23 मई को होगी तो कांग्रेस के कुछ नेताओं ने '23 मई-बीजेपी गई' नारे और हैशटैग के साथ ट्वीट किए, लेकिन उसे कांग्रेस का आधिकारिक नारा नहीं माना जा सकता.

सपा-बसपा के पास भी नारों की कमी
सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, क्षेत्रीय पार्टियां भी इस चुनाव में कोई लोकप्रिय नारा नहीं लेकर आ पाई हैं. यूपी के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 'काम बोलता है' और 'यूपी को साथ पसंद है जैसे नारे दिए थे'. लोकसभा चुनाव सपा बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर लड़ रही है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट किया था- 'एक भी वोट न बंटने पाए-एक भी वोट न घटने पाए'. साफ है कि सपा अध्यक्ष अपनी पार्टी के साथ-साथ बसपा और आरएलडी के वोटरों-कार्यकर्ताओं को भी मैसेज दे रहे हैं कि वो गठबंधन के हिसाब से ही वोटिंग करे.

चुनाव में नारों का अहम रोल
भारत में चुनावों में नारों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. चंद शब्दों में अपनी बात कह देने और उसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए नारों से बेहतर कुछ नहीं होता. अगर साल 2014 की ही बात करें तो 'अबकी बार-मोदी सरकार', 'अच्छे दिन आने वाले हैं' जैसे नारों ने घर-घर में बीजेपी का संदेश और पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का नाम पहुंचा दिया. कुछ समय के लिए इस्तेमाल किया गया 'हर-हर मोदी' भी ऐसा ही एक नारा था जिसे बाद में विवाद होने पर बीजेपी ने वापस ले लिया. कांग्रेस की बात करें तो 'कट्टर सोच नहीं युवा जोश' का नारा आम जनता तक पहुंचाने की कोशिश की गई, ताकि बीजेपी के सरकार में आने के नुकसान बताए जा सकें.

निगेटिव कैंपेनिंग में फंसी कांग्रेस
गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का 'विकास पागल हो गया है' खूब चला था. इसी तरह जीएसटी को 'गब्बर सिंह टैक्स' बताने की उसकी ट्रिक भी सफल मानी गई थी. इस बार राफेल डील को लेकर राहुल गांधी खुलेआम मंच से 'चौकीदार चोर है' का नारा लगवा रहे हैं. लेकिन ये सारे नारे निगेटिव कैंपेन ही माने जाएंगे. पार्टी को अपना एजेंडा जनता के सामने रखने के लिए एक अच्छे नारे की दरकार होगी.

जब नारों ने बदला चुनाव का माहौल
भारतीय राजनीति इतिहास में ‘गरीबी हटाओ’, ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’, ‘संपूर्ण क्रांति’ ‘इंडिया शायनिंग’ और ‘जय जवान, जय किसान’ ऐसे यादगार नारे हैं, जिन्होंने देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई. 1971 में इंदिरा गांधी ने जब ‘गरीब हटाओ’ का नारा दिया तो इस नारे ने देश की गरीब जनता में उम्मीद की किरण को जिंदा किया. और इंदिरा को चुनाव में भारी मतों से जीत दिलवाई.

सरकार बदलने में रहा है नारों का रोल
ऐसा ही कुछ 1977 में दिखने को मिला जब कांग्रेस ने ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ और ‘संपूर्ण क्रांति’ नारों के बल चुनाव प्रचार किया और उन्हें एक तरफ जीत मिली. ‘जय जवान, जय किसान’नारे से कांग्रेस नेता लाल बहादुर शास्त्री ने ‘सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी’से बीजेपी नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने चुनाव लड़े और सरकार बनाने में सफलता पाई. हालांकि, जब 1998 में बीजेपी ने ‘इंडिया शायनिंग’ के साथ चुनाव में उतरी तो उसे मुंह की खानी पड़ी.

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